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प्रभु, आप कहाँ नहीं हैं

बसे हो आप हिमाद्रि तुंग श्रृंग पर,

बनकर जीव-मात्र का कंठहार|

कहाँ अन्वेषु,कहाँ पाऊँ आपको?

बिन आपके बंद हर अनुभूति का द्वार|

किसी ने अमलन बात कही है?

प्रभु, आप कहाँ नहीं हैं!


दीन-हीन के अश्रु-नीर में,

श्रम-साध्य मनुज के पीर में|

प्रकृति के कण-कण मात्र में,

संध्या के मनोहर चंचल समीर में|

आपका हर स्वरूप यहीं है,

प्रभु, आप कहाँ नहीं है!


कर्म-संकुल भरा संघर्षमयी जीवन में,

जड़-चेतन सब आपके अधीन में|

हर पहर और शाम सहर में,

जीस्त के हर अनंत डगर में|

आपकी बूद कल्पनामयी है,

प्रभु, आप कहाँ नहीं है!


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