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स्त्री

 तुम ही हो जगदम्बा भवानी,

औ' तुम ही कहलाती राधा।

हे! प्रकृति की अधिकारिणी,

तुम्हारे बिन हर रस आधा।


सात्विक प्रेम की तुम प्रकृति,

औ' वृतियों का उद्गम स्थल।

तेरे आश्रय से संरक्षित होके,

जीव करे निज ताप शीतल।


द्वंद का जग में सर्वत्र दृश्य,

औ' तुम करुणा के प्रतीक।

अपना सरस सलिल बहाके,

प्रदान करो मानव को सीख।


अरदास है इस दिवस पर,

तेरी छाँव में हो चार पल।

चमन बहारों से भर जाए,

हर आँगन में खिलें कमल।


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